Sunday, June 28, 2009

तुम्‍हारी उर्मिला

तप रही है ये जमीन
इस बार मानसून नहीं आया अब तक
फट रहा है धरा का कलेजा
बारिश की चाह में
हाहाकार मच रहा है, चहुं ओर
बहुत दिन हो गए भीगे हुए
मुझे भी तो, तुम्‍हारे स्‍नेह में
उर्मी, उर्मी सुन रही हो तुम
सुन रही हूं, तुम्‍हारी पुकार को
आज बस तुम्‍हे ही सुन रही हूं मैं
तुम्‍हारी कही साकेत की लाइने
उर्मिला की पीडा़
कितनी गहनता से जाना था
समझा था तुमने उर्मिला की पीडा़ को
खंगाला था कवि के साथ
तुमने भी तो उसके अंर्तमन को
पर क्‍या कभी झांका तुमने
मेरे भी अंर्तमन में, जहां बस गए थे तुम
सुनाते सुनाते साकेत को कह जाते थे कितना कुछ
मेरी आंखों में झांकते हुए तुमने कही कितनी अनकही बातें
तुम्‍हारा राह रोककर खड़े हो जाना
रूठ जाना, खुद मान जाना
सब जान जाते थे बिन कहे
फिर क्‍यों नही जाना
अपनी उर्मी की पीडा़ को
जाने कब पा लिया था तुमने हर अधिकार
कब दिया था मैने तुम्‍हें यह अधिकार
कब मैं खो गई साकेत में
ओढ कर जामा उस नायिका का
एक न आने वाले पथिक की आस में
बन गई हूं तुम्‍हारी उर्मिला

ओ चंचला कभी मेरी गली भी आ

कभी-कभी हमारे घर की दीवारों की नसों में द्रुत गति से बहने वाली हे चपला, हे चंचला, तुम्‍हारे आने से जिंदगी रौशन हो जाती है, मेरे घर का कोना-कोना चहकता है, खुशियां बिखरती है, गीत गुनगुनाते हैं, ताल नृत्‍य करते हैं। तुम्‍हारा छम से आना और पल भर में मायूस कर चले जाना मुझे अच्‍छा नहीं लगता। आंखों के साथ पूरे शरीर से ही नमकीन पानी बह बह कर शरीर में पानी की कमी कर देता है। वैसे तुम्‍हारी यह चंचलता खेल खेलती है हमसे, जब हम उदास और निराश होते हैं। तुम्‍हारी आहट मात्र से खिल उठता हूं। इस तपती, जलती दुनिया में एक तुम्‍हारा ही तो आसरा है। तुम अपने साथ लाती हो गर्माहट से भरे ठंडी हवा के झोंके। जो मेरे लिए मरुस्‍थल में नदी के समान हैं। जानती हो, हमारा हर पल तुम्‍हारा इंतजार करता है, जाने क्‍यों तुम रूठ गई हो, जबकि हम मान लेते हैं तुम्‍हारी हर शर्त। दुनिया के गमों और जलते आसमां-धरती से बचकर मैं तुम्‍हारी छांव में कुछ पल सांस लेना चाहता हूं। मेरे जीवन में खुशी के दो पल देने के लिए ही आ जाओ। आ जाओं कि बिन तुम्‍हारे सब सुख यंत्र बेकार हैं।
कई रातों से हम सोए नहीं हैं, तुम्‍हारी अनुभूति थपक कर नींद की वादियों तक ले जाती है पर अचानक ही तुम्‍हारे न होने का एहसास दावानल की तरह अहसास दिला जाता है, हर कहीं आग ही आग बीच रात में बीच दोपहर का एहसास तड़पाता है हम अक्‍सर घबरा कर उठ कर बैठ जाते हैं। एक मीटर प्रति सेकेंड की गति कई बार कभी टैरेस कभी छत तो कभी कमरे में ही बौराया से फिरते हैं । गर्म बारिश भिंगोती है, सारी रात जागते है, हमारे रजों गम, जो तुम्‍हारे न होने के गम को और भी बढा देते हैं। उकता कर के हम भागते हैं खुले आसमां की चाह में, लेकिन दिन भर सूरज की आग में जली जमीन बन जाती है भट्टी और जल जाता है बदन इस ताप में। जब तुम आई थी तो मिले थे कुछ दरिया, जिनमें डूब कर कुछ देर मैं सुखानुभूति महसूस कर लेता हूं पर यकीन करो उनसे निकलते ही तुम्‍हारा इंतजार होता है। ओ चंचला कभी हमारी गली में भी आ, हर चेहरा खिल उठेगा, हर कोना रौशन होगा, तुम्‍हारे आंचल की हवा में कुछ पल सो सकूंगा, हमारे बच्‍चे भी सो सकेंगे जो तुम्‍हारे न होने के गम को और भी भयानक बना देते हैं। ठहरो और देखो तुम्‍हारे आने से मेरे घर में खुशी कैसे मचलती है। सुकून पसरता है। हे चंचला मैं तुम्‍हारी स्‍तुति करता हूं, तुम्‍हारे बढे़ हुए दामों को भी अदा करता हूं लेकिन तुम हो कि मेहरबान नहीं होती हूं। आओं कि घर का पंखा और कूलर तुम्‍हारी राह जोह रहा है। आओ कि बल्‍ब जलने को बेकरार है। तुम तो यूं आती हो मेरे घर जैसे ममता बनर्जी दिल्‍ली आती हैं। देखो तुम्‍हारा ऐसे विपत्ति की घडी़ में रूठना ठीक नहीं। मेरा दुखी मन आज कल तुम्‍हारी आने जाने की आदते देख कर एक ही गाना गाता है देर से आना जल्‍दी जाना ऐ साहिब ये ठीक नहीं।

Tuesday, June 23, 2009

लौट नहीं सकती मैं

पहाड़ों, झरनों और नदियों पर
रेगिस्‍तानों, मैदानों में
गलियों, सड़कों में
बर्फ में, पानी में
कहीं नहीं हैं
ये सब पार कर आई
यहां सब कहीं ढूंढ़ आई
तकियों के गिलाफों में
चादर की सिलवटों में
कपों के हेंडलों पर
इस कमरें की दीवार पर
पर भी मिट गए हैं।
उंगली की अंगूठी में
बालों के रंगों में
कहानियों में किस्‍से में
भी सुनाई देते
दूर तक टटोटलती हूं
चीख कर पुकारती हूं
पलकों तले दोहराती हूं
कुछ हाथ नहीं आता, कुछ साथ नहीं मिलता
जाने कहां खो गए सारे निशां
पिछले कदम के भी अंश नहीं हैं वहां
कोई रास्‍ता, कोई पगडंडी, कोई मंजिल
धूप ही मिल जाए मुझे
जिसमें जली हूं मै वो छांव भी बुझ चुकी है
तस्‍तीर धुंधली सी दिखती हैं
एक नक्‍श सा दिख रहा है
मेरे हाथ पर एक हाथ
दूर से आती एक आवाज पर
पर ये लम्स भी मुझ सा ही है
आवाज भी मेरी सी लगती है
ये मेरा ही चेहरा है
जो देख सकती हूं मैं
अजीब है मेरा सफर
क्‍या करूं?
लौट नहीं सकती
शापित हूं आगे बस आगे बढ़ने के लिए

Saturday, June 20, 2009

तुम्‍हारे गम




कई बार, बहुत बार
छिपाया है, दबाया है,
अपनी गलतियों को।
पेड़ों पर कूद-फांद करते जब,
फट जाती थी फ्रॉक,
चुपके से आकर,
कभी गेहूं की बडी़ ढेरी में
तो कभी किसी संदूक में सबसे नीचे,
छिपाया है दबाया है।
टूटे हुए कांच के बर्तनों को,
नई पेंसिल के ढेर से छिलकों को,
टेस्‍ट के पन्‍नों को,
दोस्‍तों की कॉमिक्स को,
जाने क्‍या कुछ छिपाकर,
छिपाया है दबाया है।
पगली सी मैं खो जाती थी
खेल खिलौनों में,
आज कल कोई खिलौना
बहला नहीं पाता मुझको,
जाने कैसे
मन की कई परतों में छिपाने के बाद भी
उभर आते हैं
वो अपराध जो मैंने किए,
वो गम जो तुमने दिए,
इनकों भी छिपाया है दबाया है।
कई बार, बार-बार
खुद से, सबसे
अचानक ही उभर आते हैं
मनों तले दबाने के बाद भी,
मन को पीडा़ देने के लिए।
किस ढेरी में दबाऊं इन्‍हें?
किस संदूक में छिपाऊं इन्‍हें?

Friday, June 19, 2009

खबर तो आप बनाइए जनाबे आली

चैनल पर अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा को मख्खी मारते हुए देखा जिसे देखने के बाद जाने क्‍यों लावारिश फिल्‍म का गाना अपना तो खून पानी जीना मरना बेमानी याद आने लगा। गाने की गुनगुनाहट अभी होंठो पर ही थी कि जाने क्‍यों बुश महोदय का शरापा आंखों में घूम गया। एक बार उन जूता चला था। हर फैशन की तरह ही भारतीयों ने यह फैशन भी खूब चलाया और अपने नेताओं को जूता मार-मार कर रिकॉर्ड बना दिया और इसी के साथ अचानक ही जूते की वल्‍यू भी बढ़ गई थी। अब आप सोचिए कि अगर पूर्व अमेरिकी राष्‍ट्रपति के साथ घटी घटना को भारतीयों ने इतनी अहमियत दी उस हिसाब से ओबामा तो अभी नए ताजे हैं। उन्‍होंने जिस घटना को अंजाम दिया उसे इस मंदी के दौर में ज्‍यादातर भारतीय रोज ही देते हैं लेकिन कहते हैं न कि घर की मुर्गी दाल बराबर। अब सोचिए इस खबर को चैनल्‍स कितनी देर दिखा पाए होंगे। बहुत कोशिश के बाद कुछ सेकेंड ही न। वहीं अगर मंदी के मारे भारतीयों द्वारा मख्‍खी मारने पर खबर बनाते तो पूरा एक पैकेज ही दिया जा सकता है। जैसे कि ये है फला कम्‍पनी के पूर्व एमडी आजकल ये दिन भर मख्खियां मारते रहते है बल्कि ये तो रिकॉर्ड बनाने की सोच रहे है। भारत में मख्‍खी मारने वाले विभिन्‍न क्षेत्रों में मिल जाएंगे। मंदी के बाद यही एक कारोबार है जिसमें बढोतरी हुई है।
आज हर क्षेत्र में हमारा मुल्‍क प्रगति कर रहा है खासकर फैशन के मामले में तो जल्‍द ही हमारे नेता भी ओबामा के नक्‍शेकदम पर चलते नजर आएंगे। बहुत जल्‍द कोई नेता आपको किसी चैनल पर मख्‍खी मारता हुआ नजर आ सकता है। यूं भी इस बार के आम चुनावों में काफी नेतागण बेकार हो चुके हैं। इस कहानी पर स्क्रिप्‍ट राइटिंग शूरू हो चुकी होगी। अब तो इस बात की होड़ मची होगी कि इसमें बाजी कौन मार पाता है। इस खबर को देख कर हमारे पडो़सी वर्मा जी जो अभी-अभी एक चैनल की सेवा से मुक्‍त कर दिए गए हैं। मेरे पास चले बोले इस मंदी में हम भी तो यही कर रहे हैं, हमारी खबर क्‍यों नहीं बनती। अब हम उन्‍हें क्‍या बताएं कि उनकी खबर क्‍यों नहीं बनती। हम तो बस यही गाना गुनगुना रहे हैं कि अपना तो खून पानी जीना मरना बेमानी खबरे तो आप बनाइए जनाबे आली।

Monday, June 1, 2009

भूलता नहीं मुझको



यादों के गलियारों में एक लालटेन जलाकर
मैंने ढूढे कुछ खोए हुए पल,
पर मैं तो भूल गई अतीत को
याद नहीं, कौन था, किसने राह दिखाई
याद नहीं, पिछली पंगडंडी का मोड़
कहां तक जाता था।
जुबां पर जो अब भी है ठहरा
यह स्‍वाद कब मिला था।
बहुत याद करने पर भी याद नहीं आता
वो चेहरा, जो बहुत देर तक
निहारा करता था मुझको
शायद वह छब्‍बीस तारीख थी, जब हम तुम
कुछ पल के साथी बने थे।
उस लड़की का नाम भी याद नहीं आता,
जिसे कहते थे हम रेल का इंजन
बहुत देर भरमू यादों के गलियारे में तो
कुछ याद आए शायद मुझको,
कि पैरों में यह चोट कब लगी थी,
आखिरी किताब कौन सी पढी़ थी,
तुमने आखिरी गुलाब कब दिया था,
ये चेहरा पहले कहां देखा है,
किस तंज पर हुई थी पीडा़,
और कौन शर्त मैनें हारी है,
ये ट्रॉफी कहां पर जीती थी,
कब मिली थी मैं खुद से आखिरी बार।
याद नहीं आ रही है मुझको,
अपनी पंसदीदा गजल की कुछ लाइने ।
तुम भी तो भूल गए
वो सारी बाते, जो कही थी तुमने मुझसे
तुम भी तो भूल जाते हो,
मेरी चूड़ियों की नाप,
तुम्‍हे याद रहता है किस फाइल में क्‍या रखा है,
पर याद नहीं आता वो नाम,
जिससे भेजा करते थे अपने प्रेमपत्र मुझे।
क्‍या याद है तुमको वो गीत जो गुनगुनाते हुए
गुजरा करते थे मेरे बगल से अक्‍सर,
शायद सब ही भूल जाते हैं
बहुत सी बातें
और मेरी तरह ही करते हैं भारी भूले
लेकिन जाने क्‍यों इन भारी भूलों के बीच
जो भूल गए हैं सब
वो याद आता है मुझको
तब सोचती हूं बडा़ अच्‍छा होता है
सब कुछ भूल जाना
क्‍योंकि जो याद आता है वह भूलता नहीं कभी
याद आता है मुझको
मां भी तो भूल जाती थी
मेरी गलतियों को, शरारतों को,
बहन भी भुला देती थी
कापी के पन्‍ने को फाड़ देना और
उसकी चित्रों को खराब कर देना
भाई भी भुला देता था मेरे पीटने को और डांटने को
डैडी भूल जाते थे मुझे स्‍कूल से लाना
मां जब भूल जाती बैग में टिफिन रखना
तो डैडी आते थे देने अपने स्‍कूटर से
ये भूलता नहीं मुझको
ये याद आता है मुझको