Monday, May 31, 2010

जाते जाते,,, तेरे नाम मां...

वो दानिश्तां छोड़कर दामन मेरा
शहर की गलियों में खो गया
आखिर हमने बारहा रोका था कहके रस्ता तेरा
अपनी मिट्टी से बिछडकर न बच पाएगा
यहां की माटी तेरे पुरखों की अमानत है
ये बाग़, ये गुलशन, ये खंडहर सब
एक उम्र बचा रखते हैं अपने पहलू में
टूटती शाख कोई हिसाब है तेरे बचपन का
गली का मोड़ मुश्किलों का दोराहा है
हर फर्द गुजस्ता दौर की गवाही है यहां
तेरी यादों का वो हिस्सा जो छूट गया
तेरे बचपन की तमाम शरारतों के साथ
वो गलियां जहां कंचे की खनक है अब भी
जहां हर झोंका अमराई की खुश्बू के साथ
लेके आता है तेरी कोई शिकायत मुझतक
और तो औऱ मेरे आंचल का ये लम्बा कोना
किसे छुपाएगा तेरे बाद अपने पहलू में
बाप की आहट से तू भले न घबराए
लेकिन मैं तो अब भी हूं तेरी फिक्र में परीशां
तेरी हसरतें कि तू दुनिया तलाशे
है शामिल मेरी भी रज़ा उसमें लेकिन
रह गया कोई मंजर मेरी आंखों में बाकी
वो मंजर जिनका हर रिश्ता है तुझसे
वो भारी सा बस्ता वो तेरा बचपन
शाम होते ही होती थी जो तारी थकन
वो फिर सुबह ताजा होके निकलना
दोस्तों में फिर वही हंसना बहलना
आंखों की बीनाई कम हो रही है
पीरीं के अपने अलग मरहले हैं
हर खुशी तुम्हारी है मेरी भी उतनी
मगर तेरा हर ग़म है सिर्फ मेरा दुआएं हैं
चमके तू सितारों के जैसा
गुलशन में महके गुलाबों के जैसा
मिले कामयाबी दुनिया जहां की
मगर कुछ है हसरत हमारी भी बाकी
वही अपना बचपन लौटा दो हमको थे
जब तुम बहुत ही बेबाक हमसे
अश्कों का दरिया बहाते थे जबतुम
और लिपट जाते थे मेरे पहलू से आके
आरिज़ पे ढलके जाते हैं आंसू
लेकिन वो आंखें अब हैं होती हमारी
नहीं कोई चाहत मिले हमको दौलत
नहीं हसरतें कोई हमें दे खज़ाने
हमारी तो है बस यही आरजू कि
तू लौटे तो लौटे वो बचपन भी तेरा
जिसे था भरोसा मेरे बाजुओं पर था
आंचल ही जब तेरी प्यारी सी दुनिया
अभी वक्त है कुछ नहीं आज बदला
कि अब है हमें कुछ जरूरत सी तेरी
यही है वजह, वहीं नजरें टिकी हैं
जहां से मुड़ा था तू शहर जाते जाते...
written by
akhand shahi

Monday, March 15, 2010

तुम चले गए....

अक्सर धरा की सहनशीलता के आगे
निम्न हो जाती है आकाश की विशालता
पूर्व नियोजित नहीं है यह उपेक्षा
शायद यह जानते थे तुम
या आदतन थी "चुप"
यह आज भी बड़ा रहस्यम है
कुछ कहना थी तुम्हारी महानता
या सब आँचल में समेट लेना था उसका स्वाभाव
कितने ही ग्रन्थ भरे पड़े हैं धरा की प्रशंसा से
कहीं कहीं तुम पर भी बरसी है उदारता
पर मर्म तो अब भी है अनछुआ

हर मांग को, हर बात को
स्वीकरोक्ति देते थे तुम ही
ठो चेहरे और सख्त जुमलो के साथ
दिन भर चकरी सी घूमती धरा का आधार तुम थे
सब कुछ कर लेने की ताकत भी तुम थे
कितनी भिन्नता है दोनों में फिर भी
आखों में चमकते विश्वाह की लय ताल एक सी
तुम्हारी विशालता का भान उसे था
यही तो थी उसकी सहनशीलता की ताकत
सामान्य आँखे देख ही नहीं पाई उस उर्जा स्रोत को
जिसमे विलुप्त हो जाती थी धरा

अपने सारे संघर्ष लिए

कहे नहीं कभी तुमने उससे

तुम कर लोगी

फिर भी कानों में गूंजते रहते थे अस्फुट स्वर

नहीं सुन पाया उसके सिवा कोई उस गूंज को

सभी करते रहे उपासना पत्थर की

ताकतें, हिम्मते, साहस लिए तुम

कहीं गुम हो गए
बिना यह जाने क़ि तुम्हारे साथ ही मिट गई
साहस क़ि सारी निशानियाँ
धरा क़ि सारी हरियाली
तुम चले गए....
अपनी सारी विशालता लिए
गहरे नीले सागर में .....

Sunday, March 7, 2010

'अजन्मे किरदार'

गिर चुका है रंगमच का पर्दा

ख़त्म हो चुका है


मेरा और तुम्हारा


"रोल"


शुरू हो गई है 'जिंदगी'


पहने गए हैं पुराने libas

किन्तु मंच पर अब भी जीवित हैं


'अजन्मे किरदार'


जिनकी जुबा पर


स्वाद ही नहीं जीवन का


वह भी बिलख रहें हैं इनकी भूख में


यूँ स्नेह से न देखो इन्हें


त्याग दो इनका मोह तुम


करो इनकी मुक्ति का कुछ योग


कहो अलविदा


दे दो इन्हें "मुक्ति की विदाई"


ताकि फिर जन्म ले सके नया किरदार

सजता रहे यूँ ही रंगमंच

और फैलती रहे जीवन की आभा भी.











Thursday, January 28, 2010

'तुम्हारे ढेर से शब्द

अंजुरियों में भर लेती हूँ
देखती हूँ,
मुस्कुराती हूँ,
जाने क्या कहते हैं?
जाने क्या सुन जाती हूँ.
कभी घबराकर,
कभी शरमाकर,
छुपा देती हूँ इनके बीच चेहरा
'अपना'
चिपक जातें हैं पेशानी से लबों तक,
'अक्स', 'खुशबू'
'सिमटना',' बिखरना'
'राख' और 'ख्वाब'
'अजीज', 'पुरनम'
'सायबान', 'सूरज'
मुझे रोककर,
मुड़ जातें हैं अक्सर.
मैं, तुम और हम
कहीं से उठतें हैं,
कहीं जुड़ जानतें हैं
कभी ये पीछे,
कभी मैं इनके
कभी खो जानते है
कभी छा जाते हैं
बिखर जाते हैं
जमीं और आसमा पर,
सिमट जाएँ तो
बनाते हैं चेहरा तुम्हारा.
क्या अर्थ बताते हो तुम
क्या समझातें हैं ये मुझको
और यूँ ही गुजर जाता है 'दिन'
'तुम्हारे ढेर से शब्दों' के बीच