Thursday, January 28, 2010

'तुम्हारे ढेर से शब्द

अंजुरियों में भर लेती हूँ
देखती हूँ,
मुस्कुराती हूँ,
जाने क्या कहते हैं?
जाने क्या सुन जाती हूँ.
कभी घबराकर,
कभी शरमाकर,
छुपा देती हूँ इनके बीच चेहरा
'अपना'
चिपक जातें हैं पेशानी से लबों तक,
'अक्स', 'खुशबू'
'सिमटना',' बिखरना'
'राख' और 'ख्वाब'
'अजीज', 'पुरनम'
'सायबान', 'सूरज'
मुझे रोककर,
मुड़ जातें हैं अक्सर.
मैं, तुम और हम
कहीं से उठतें हैं,
कहीं जुड़ जानतें हैं
कभी ये पीछे,
कभी मैं इनके
कभी खो जानते है
कभी छा जाते हैं
बिखर जाते हैं
जमीं और आसमा पर,
सिमट जाएँ तो
बनाते हैं चेहरा तुम्हारा.
क्या अर्थ बताते हो तुम
क्या समझातें हैं ये मुझको
और यूँ ही गुजर जाता है 'दिन'
'तुम्हारे ढेर से शब्दों' के बीच