Monday, March 15, 2010

तुम चले गए....

अक्सर धरा की सहनशीलता के आगे
निम्न हो जाती है आकाश की विशालता
पूर्व नियोजित नहीं है यह उपेक्षा
शायद यह जानते थे तुम
या आदतन थी "चुप"
यह आज भी बड़ा रहस्यम है
कुछ कहना थी तुम्हारी महानता
या सब आँचल में समेट लेना था उसका स्वाभाव
कितने ही ग्रन्थ भरे पड़े हैं धरा की प्रशंसा से
कहीं कहीं तुम पर भी बरसी है उदारता
पर मर्म तो अब भी है अनछुआ

हर मांग को, हर बात को
स्वीकरोक्ति देते थे तुम ही
ठो चेहरे और सख्त जुमलो के साथ
दिन भर चकरी सी घूमती धरा का आधार तुम थे
सब कुछ कर लेने की ताकत भी तुम थे
कितनी भिन्नता है दोनों में फिर भी
आखों में चमकते विश्वाह की लय ताल एक सी
तुम्हारी विशालता का भान उसे था
यही तो थी उसकी सहनशीलता की ताकत
सामान्य आँखे देख ही नहीं पाई उस उर्जा स्रोत को
जिसमे विलुप्त हो जाती थी धरा

अपने सारे संघर्ष लिए

कहे नहीं कभी तुमने उससे

तुम कर लोगी

फिर भी कानों में गूंजते रहते थे अस्फुट स्वर

नहीं सुन पाया उसके सिवा कोई उस गूंज को

सभी करते रहे उपासना पत्थर की

ताकतें, हिम्मते, साहस लिए तुम

कहीं गुम हो गए
बिना यह जाने क़ि तुम्हारे साथ ही मिट गई
साहस क़ि सारी निशानियाँ
धरा क़ि सारी हरियाली
तुम चले गए....
अपनी सारी विशालता लिए
गहरे नीले सागर में .....

Sunday, March 7, 2010

'अजन्मे किरदार'

गिर चुका है रंगमच का पर्दा

ख़त्म हो चुका है


मेरा और तुम्हारा


"रोल"


शुरू हो गई है 'जिंदगी'


पहने गए हैं पुराने libas

किन्तु मंच पर अब भी जीवित हैं


'अजन्मे किरदार'


जिनकी जुबा पर


स्वाद ही नहीं जीवन का


वह भी बिलख रहें हैं इनकी भूख में


यूँ स्नेह से न देखो इन्हें


त्याग दो इनका मोह तुम


करो इनकी मुक्ति का कुछ योग


कहो अलविदा


दे दो इन्हें "मुक्ति की विदाई"


ताकि फिर जन्म ले सके नया किरदार

सजता रहे यूँ ही रंगमंच

और फैलती रहे जीवन की आभा भी.