वो दानिश्तां छोड़कर दामन मेरा
शहर की गलियों में खो गया
आखिर हमने बारहा रोका था कहके रस्ता तेरा
अपनी मिट्टी से बिछडकर न बच पाएगा
यहां की माटी तेरे पुरखों की अमानत है
ये बाग़, ये गुलशन, ये खंडहर सब
एक उम्र बचा रखते हैं अपने पहलू में
टूटती शाख कोई हिसाब है तेरे बचपन का
गली का मोड़ मुश्किलों का दोराहा है
हर फर्द गुजस्ता दौर की गवाही है यहां
तेरी यादों का वो हिस्सा जो छूट गया
तेरे बचपन की तमाम शरारतों के साथ
वो गलियां जहां कंचे की खनक है अब भी
जहां हर झोंका अमराई की खुश्बू के साथ
लेके आता है तेरी कोई शिकायत मुझतक
और तो औऱ मेरे आंचल का ये लम्बा कोना
किसे छुपाएगा तेरे बाद अपने पहलू में
बाप की आहट से तू भले न घबराए
लेकिन मैं तो अब भी हूं तेरी फिक्र में परीशां
तेरी हसरतें कि तू दुनिया तलाशे
है शामिल मेरी भी रज़ा उसमें लेकिन
रह गया कोई मंजर मेरी आंखों में बाकी
वो मंजर जिनका हर रिश्ता है तुझसे
वो भारी सा बस्ता वो तेरा बचपन
शाम होते ही होती थी जो तारी थकन
वो फिर सुबह ताजा होके निकलना
दोस्तों में फिर वही हंसना बहलना
आंखों की बीनाई कम हो रही है
पीरीं के अपने अलग मरहले हैं
हर खुशी तुम्हारी है मेरी भी उतनी
मगर तेरा हर ग़म है सिर्फ मेरा दुआएं हैं
चमके तू सितारों के जैसा
गुलशन में महके गुलाबों के जैसा
मिले कामयाबी दुनिया जहां की
मगर कुछ है हसरत हमारी भी बाकी
वही अपना बचपन लौटा दो हमको थे
जब तुम बहुत ही बेबाक हमसे
अश्कों का दरिया बहाते थे जबतुम
और लिपट जाते थे मेरे पहलू से आके
आरिज़ पे ढलके जाते हैं आंसू
लेकिन वो आंखें अब हैं होती हमारी
नहीं कोई चाहत मिले हमको दौलत
नहीं हसरतें कोई हमें दे खज़ाने
हमारी तो है बस यही आरजू कि
तू लौटे तो लौटे वो बचपन भी तेरा
जिसे था भरोसा मेरे बाजुओं पर था
आंचल ही जब तेरी प्यारी सी दुनिया
अभी वक्त है कुछ नहीं आज बदला
कि अब है हमें कुछ जरूरत सी तेरी
यही है वजह, वहीं नजरें टिकी हैं
जहां से मुड़ा था तू शहर जाते जाते...
written by
akhand shahi
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यही है वजह, वहीं नजरें टिकी हैं
ReplyDeleteजहां से मुड़ा था तू शहर जाते जाते...
bahut badhiya aur umda....
waah bahut sundar...bhaavon ka umadta aur barasta baadal hai aapki rachna bahut sundar...
ReplyDeleteमाँ पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन एक माँ के मन कि जो आपने लिखी है वो बेहतरीन है!
ReplyDeleteBahot hi heart-touching hai yeh kavita, khas kar mere liye, kyonki main abhi-abhi apni maa, apne desh se alag hua hun. Akhand Shahi ko likhne ke liye aur tumhen ise select kar upload karne ke liye badhaayi! -Nirmal
ReplyDeleteमनभावुक ।
ReplyDeleteतेरे बचपन की तमाम शरारतों के साथ
ReplyDeleteवो गलियां जहां कंचे की खनक है अब भी
बहुत भावप्रिय। वाह। सुंदर रचना के लिए बधाई।
http://udbhavna.blogspot.com/
Shukriya share karne ke liye ....
ReplyDeleteThnks Sonalika..have received all ur comments and they duly apepar on my blog..you may liek to check..do share your email id as your profile doesnt carry it..sorry I am posting this in comment section as yoru email id is not available.
ReplyDeleteहमसब तुम्हारी ही तो छाया में रहते हैं न माँ...
ReplyDeleteसुंदर कविता...
वैष्णवी वंदना
realy i like this poem...beautiful wording and emotions...thanx keep writing
ReplyDeletebahut khoobsurt
ReplyDeletemahnat safal hui
yu hi likhate raho tumhe padhana acha lagata hai.
or haan deri ke liye sorry.
thanx sona...bahut umda nzm rakkhi hai saamne...Shukria..
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletebhaut umda likha hai
ReplyDeleteयही है वजह, वहीं नजरें टिकी हैं
ReplyDeleteजहां से मुड़ा था तू शहर जाते जाते...
bahut badhiya aur bhavo ko bahut umda dhang se abhivyakt kiya h aapne