जाने क्यों लगता है,
फिर मिल जाओगे मुझे
किसी राह पर किसी मोड़ पर,
जाने क्यों अजनबी शहर की
हर एक शय में,
बेबस निगाहें ढूंढ़ती हैं
तुम्हारी सी कोई पहचान,
जाने क्यों डूबते सूरज के साथ
मेरी लाल ओढ़नी में
महकने लगते हैं
तुम्हारी पीली डायरी के
कुछ सूखे फूल।
शहर के बेपनाह शोर में
उभरता है एक सन्नाटा
और गूंजने लगते हैं,
कुछ शेर, कुछ नज्म़ें
वो कविता जो पढ़ी थी
तुमने कभी मेरी आंखों में।
अचानक चमकती सड़क की
सफेद पट्टियां
बदल जाती हैं तुम्हारी शर्ट की पट्टियों में
जिस पर गिरा था
एक सुनहरा पंख पीपल के तले
अपनी उंगलियों से उठाकर जिसे
सुपुर्द किया था डायरी को,
जाने कैसे
रिक्शे की नीली छत
बदल जाती है नीली छतरी में
और बरसने लगता है सावन
यूं सिमटने लगती हूं मैं
जैसे मुझे घेरे हों तुम्हारी बाहें।
कभी-कभी कॉफी से उठता
सफेद धुआं तब्दील हो जाता है
एक बर्फबारी में,
जिससे जड़ जाती है
कमरे की हर चीज,
दो जलते हाथ थाम लेते हैं मुझे
और पिघलने लगती हूं मैं।
फिर मिल जाओगे मुझे,
किसी राह में किसी मोड़ पर...
सुन्दर कविता..।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत !!!
ReplyDeleteजाने कैसे
रिक्शे की नीली छत
बदल जाती है नीली छतरी में
और बरसने लगता है सावन
यूं सिमटने लगती हूं मैं
जैसे मुझे घेरे हों तुम्हारी बाहें।
कभी-कभी कॉफी से उठता
सफेद धुआं तब्दील हो जाता है
एक बर्फबारी में,
जिससे जड़ जाती है
कमरे की हर चीज,
दो जलते हाथ थाम लेते हैं मुझे
और पिघलने लगती हूं मैं।
फिर मिल जाओगे मुझे,
किसी राह में किसी मोड़ पर...
जैसे शाम के धुंधलके में दूर से आती बंशी की मधुर धुन
जैसे रात के सन्नाटे में किसी झील में धीरे धीरे उतरता चाँद
जैसे अमराईयों में पत्तों से छनती हुयी शुभ्र उज्जवल ज्योत्सना.
अचानक चमकती सड़क की
ReplyDeleteसफेद पट्टियां
बदल जाती हैं तुम्हारी शर्ट की पट्टियों में
जिस पर गिरा था
एक सुनहरा पंख पीपल के तले
अपनी उंगलियों से उठाकर जिसे
सुपुर्द किया था डायरी को,
जाने कैसे
रिक्शे की नीली छत
बदल जाती है नीली छतरी में
और बरसने लगता है सावन
यूं सिमटने लगती हूं मैं
जैसे मुझे घेरे हों तुम्हारी बाहें।
बहुत खूब... शब्दों को खूबसूरती से चुनना और फिर उन्हें नजाकत के साथ कविता में पिरो देना बखूबी आता है तुम्हे। तुम्हारी कविता दिल को छू गई।
बहुत ही सुन्दर रचना .......बधाई
ReplyDeleteSach men, kisi raah pe zarur mulaakaat hogi.
ReplyDelete{ Treasurer-TSALIIM & SBAI }
Bhaav bahut pyare hai sonalika ! keep writing
ReplyDeletehttp://priya-priyankasworld.blogspot.com/
very nice ji...
ReplyDeletedil ko chhu lene wali rachna...
bahut hi achi rachna , dil ko chooti hui si .. aur yaado ko jagati hui si
ReplyDeleteregards
vijay
please read my new poem " झील" on www.poemsofvijay.blogspot.com
pure and beautiful
ReplyDeleteदो जलते हाथ थाम लेते हैं मुझे
ReplyDeleteऔर पिघलने लगती हूं मैं।
फिर मिल जाओगे मुझे,
किसी राह में किसी मोड़ पर...
behad khubsurat bhav badhai
बेहद खूबसूरत रचना. भावनाओ का प्रवाह
ReplyDeleteजाने क्यों लगता है,
ReplyDeleteफिर मिल जाओगे मुझे
किसी राह पर किसी मोड़ पर,
जाने क्यों अजनबी शहर की
हर एक शय में,
बेबस निगाहें ढूंढ़ती हैं
haan kai baar aisa hota hai.....
bahut hi sundar kavita...... sebtiments ko abhut hi khoobsoorti se piroya gaya hai......
badhai.....
and thnx for ur motivating n beautiful comment......
Regards........
behtareen peshkash aapki
ReplyDeleteachcha likhte ho aap
aap hamare blogs par aaye hope aapko
achcha lagega...
thnx blogger
aleem azmi
सोनालिका जी एहसास और भावनाओं को व्यक्त करने का आपका अंदाज और आपकी लेखनी मुझे बहुत पसंद आती है....दिल के करीब सी लगती है रचना
ReplyDeletehi Dear
ReplyDeletebahut hi acchi kavita hai bus yu samjho dil ko chu gayi
khair ye jarror kahunga ki aaj ki bhagdaud me ye kavita kuch sukun deti hai but ye ahsasbhi karati hai ki kash kuch fursat ke pal bhi mil sake to kitna accha hota
sonalika
ReplyDeletenamaskar
deri se aane ke liye maafi ..
bahut der se aapki is poem par ruka hua hoon ... kaise likh liya ji itni gahri chooti hui nazm.. jiske akshar akshar kuch na kuch kah raha hai .. mera salaam kabul kare is shaandar rachna ke liye ....
meri badhai sweekar kare .
regards,
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
ye dusra comment hai ji , ab jaldi se aap next poem likho ...ji
ReplyDeletebahut hi badiya likha he aapne
ReplyDeletesachmuch dil ko choo gayi ye rachna....badhayi
ReplyDelete