Saturday, June 20, 2009

तुम्‍हारे गम




कई बार, बहुत बार
छिपाया है, दबाया है,
अपनी गलतियों को।
पेड़ों पर कूद-फांद करते जब,
फट जाती थी फ्रॉक,
चुपके से आकर,
कभी गेहूं की बडी़ ढेरी में
तो कभी किसी संदूक में सबसे नीचे,
छिपाया है दबाया है।
टूटे हुए कांच के बर्तनों को,
नई पेंसिल के ढेर से छिलकों को,
टेस्‍ट के पन्‍नों को,
दोस्‍तों की कॉमिक्स को,
जाने क्‍या कुछ छिपाकर,
छिपाया है दबाया है।
पगली सी मैं खो जाती थी
खेल खिलौनों में,
आज कल कोई खिलौना
बहला नहीं पाता मुझको,
जाने कैसे
मन की कई परतों में छिपाने के बाद भी
उभर आते हैं
वो अपराध जो मैंने किए,
वो गम जो तुमने दिए,
इनकों भी छिपाया है दबाया है।
कई बार, बार-बार
खुद से, सबसे
अचानक ही उभर आते हैं
मनों तले दबाने के बाद भी,
मन को पीडा़ देने के लिए।
किस ढेरी में दबाऊं इन्‍हें?
किस संदूक में छिपाऊं इन्‍हें?

5 comments:

  1. बहुत नाज़ुक और सुन्दर कविता है

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  2. अपनों के दिये गम भी कितने प्यारे होते हैं।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  3. aisa hee hotaa hai gam jab mahabub sath na ho .........ek tanhaaee jisame pyaar khushboo hai ...........bahut sundar

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  4. anitm pantiyan behad snajida hain.Puri kavita beahad achchhi hai.Inmein kahin na khain apna bachpan dikhta hai.

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