Tuesday, June 23, 2009

लौट नहीं सकती मैं

पहाड़ों, झरनों और नदियों पर
रेगिस्‍तानों, मैदानों में
गलियों, सड़कों में
बर्फ में, पानी में
कहीं नहीं हैं
ये सब पार कर आई
यहां सब कहीं ढूंढ़ आई
तकियों के गिलाफों में
चादर की सिलवटों में
कपों के हेंडलों पर
इस कमरें की दीवार पर
पर भी मिट गए हैं।
उंगली की अंगूठी में
बालों के रंगों में
कहानियों में किस्‍से में
भी सुनाई देते
दूर तक टटोटलती हूं
चीख कर पुकारती हूं
पलकों तले दोहराती हूं
कुछ हाथ नहीं आता, कुछ साथ नहीं मिलता
जाने कहां खो गए सारे निशां
पिछले कदम के भी अंश नहीं हैं वहां
कोई रास्‍ता, कोई पगडंडी, कोई मंजिल
धूप ही मिल जाए मुझे
जिसमें जली हूं मै वो छांव भी बुझ चुकी है
तस्‍तीर धुंधली सी दिखती हैं
एक नक्‍श सा दिख रहा है
मेरे हाथ पर एक हाथ
दूर से आती एक आवाज पर
पर ये लम्स भी मुझ सा ही है
आवाज भी मेरी सी लगती है
ये मेरा ही चेहरा है
जो देख सकती हूं मैं
अजीब है मेरा सफर
क्‍या करूं?
लौट नहीं सकती
शापित हूं आगे बस आगे बढ़ने के लिए

7 comments:

  1. वाह सोनालिका जी कमाल की भाव अभिव्यक्ति है
    जो देख सकती हूं मैं
    अजीब है मेरा सफर
    क्‍या करूं?
    लौट नहीं सकती
    शापित हूं आगे बस आगे बढ़ने के लिए
    बहुत सुन्दर्

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  2. bahut hi sahi laga ki ...........lout nahi sakati shapit hun mai sirf aage badhane ke liye .................jindagii isi majboori ka nam hai

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  3. लौट नहीं सकती
    शापित हूं आगे बस आगे बढ़ने के लिए
    ----
    बहुत खूब – बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. bahoot khub.Achchhi kavita likhi hai aapne.
    navnit nirav

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  5. बहुत गहन भावपूर्ण रचना.

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  6. मन के भावों को शब्दों के माध्यम से बहुत खूबसूरती से उकेरती हैं आप.....अच्छा लगता है आपको पढना

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  7. Behtareen............. aur kuch kahne ke liye shabd kam pad jaenge.

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